रात की कालिमा थी बिखरी,
युद्ध विराम की शान्ति थी फैली,
तम्बुओं के झुरमुठों में,
जलते अलावों के सामने,
जख्मी सैनिक रहे थे गा,
दिल में लिए जोश,
और क्यों न हो,
जब साथ मिला श्री कृष्ण का हो।
पर यह क्या नज़ारा है,
यह दुखी सा कौन आ रहा है,
मोर पँख तो हैं एक ही लगाते,
पर यह श्री कृष्ण नहीं हो सकते,
चाल में नहीं दम,
आखोँ में नहीं चमक,
माथे हैं परेशानी की लकीरें,
साथी चलो देखें यह कहाँ जा रहे?
सुभद्रा बहन के तम्बू के सामने,
पहुँच श्री कृष्ण लगे विचारने,
“मन आज बहुत विचलित है,
चारों तरफ फैला द्वेष है,
दिलों का मल देख उबकाई आती है,
पर मेरा मज़बूत होना ज़रूरी है,
जवान, बूढ़े, आदमी, और औरत,
करते विश्वास सब मेरी शक्ति पर,
परन्तु ईश्वर होना नहीं है आसान,
विचलित मन को कैसे बहकायें,
आखिर उत्तर सब प्रश्नों के,
मैंने ही तो बनाए!”
जब होने लगे मन पर संदेह,
जा बैठो पास जिनसे हो स्नेह,
मन का द्वंध तब होगा समाप्त,
जब निर्मल वचन पायेगा निश्चल साथ।
आया सुभद्रा मैं पास तुम्हारे,
लगता अकेला है इस भीड़ में,
बहन चलो बैठें करें बातें,
बचपन बहुत याद आता है मुझे,
याद है मुझे अभी भी,
पर तुम कभी ना मानोगी,
दाऊ की गदा तब तुमने ही,
गुस्सें में भैंस से चबवाई थी।
सत्य वचन भाई,
ऐक बात मुझे भी याद आई,
याद करो तुम वह होली,
जब मची थी ढूँढ तुम्हारी,
अखाड़े के हर स्नान कक्ष में,
भर दिया था रंग तुमने जल में,
रंग-बिरंगे हो गए थे पहलवान,
ना छुपते तो गयी थी तुम्हारी जान।
बारी थी अब श्री कृष्ण की,
आँखें चमकी, मुस्कान हुई तिरछी,
बोले तुम थी बहुत ही ज़िद्दी,
मन भाया ही पहनती, खाती,
मन भाया ही करी तुमने शादी,
आखरी शब्द सुन सुभद्रा बिफरी,
बोली तुम हो कौन से दूध के धुले,
पहनते हो तुम सिर्फ पीताम्बरी,
क्या और रंगों में है कोई कमी?
कुछ देर और नोंक-झोंक चली,
सुभद्रा से बात कर,
श्री कृष्ण के विचलित मन से,
अप्रसन्नता की परत हटी,
बहन को लगा गले बोले,
जाता हूँ थोड़ा विश्राम करने,
सूर्य जल्दी ही उदय होगा,
युद्ध फिर प्रारम्भ होगा,
अर्जुन का रथ है खींचना,
परेशान तुम मत होना बहना,
शीघ्र युद्ध होगा समाप्त,
अँधकार हट बनेगा नया समाज,
नयी पीढ़ी फल पाएगी,
खुशियों के सँग नाचे गाएगी।
रात की कालिमा लगी थी छटने,
अलाव हो चुके थे ठंडे,
गीत बहने लगे थे तम्बुओं से,
बज रहे थे घंटे दूर मंदिर में,
सैनिक लगे थे उठने,
दिल में जोश भरे हुए,
और क्यों ना हो,
जब साथ मिला श्री कृष्ण का हो।
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