पहाड़ की गोद में,
पेड़ की ओट में,
रहे थे लड़,
गणेश और मूषक।
विषय गंभीर था,
मामला संगीन था,
मूषक था गया अड़,
गणेश ना बिठाऊँ ऊपर।
बढ़ गया है वजन गणेश का,
दबता है शरीर मूषक का,
कमर लगी है उसकी दुखने,
हड्डियाँ लगी हैं चिरमिराने।
मोदक गणेश कहते छोडूंगा नहीं,
ऊपर मूषक कहता बिठाऊंगा नहीं,
गणेश कहते तुम मोटे हो जाओ,
मूषक कहता तुम पतले हो जाओ।
गणेश कहते दूसरा मूषक लूँगा,
मूषक कहता दूसरे को आने ना दूँगा,
गणेश कहते पिता को बताऊँगा,
मूषक बोला पार्वती माँ को कहूँगा।
गणेश कहते दादागिरी हो दिखाते,
मूषक बोला क्यों इतने रसगुल्ले खाते,
गणेश कहते तुम मेहनत से हो डरते,
मूषक बोला तुम कसरत से हो भागते।
गणेश मूषक की देख तू-तू-मैं-मैं,
देव-गण लगे मुस्कुराने मन-मन में,
इस निर्मल मित्र-प्रेम का स्वाद लेने,
पत्ती बन छिप गए पेड़ में।
गणेश कहते हवा पर बैठ कर जाऊँगा,
मूषक बोला आँधी बन तुम्हें गिराउँगा,
गणेश कहते पानी में तैर कर जाऊँगा,
मूषक बोला भँवर बन गोल-गोल घुमाऊँगा।
मूषक थे गए अड़,
गणेश भी थे गए थक,
सूर्य तभी जा छिपा,
फिर दोनों को डर लगा।
पकड़ ऐक दूसरे का हाथ,
गणेश मूषक चले साथ-साथ,
देव-गण देख लगे हँसने,
चल दिए वो भी घर अपने।
पहाड़ों की गोद में,
तारों की ओट में,
जा रहे थे घर,
गणेश और मूषक।
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