शकुन्तला का सत्य

फूल हैं फीके-फीके से,
पत्तियाँ कच्ची-कच्ची सी,
हवा में खुशबू नहीं,
बरसात है सूखी सूखी सी.

सूरज में कोई ताप नहीं,
चिड़ियों में आवाज़ नहीं,
वीणा की मधुर धुन भी छौने,
लगती साँप की फुफकार सी.

मन कैसा विचित्र है होता,
सोचती व्याकुल शकुन्तला,
जैसा चाहे वैसा देखता,
सत्य के रूप हर पल बदलता.

दुखी आँखें अशान्त मन मेरा,
जानती हूँ सब माया का फेरा,
फूलों में अभी भी रंग भरा,
सूरज के ताप से जंगल जला.

वीणा की आवाज़ है अद्भुत,
चिड़ियाँ भी चहचहा रही हैं,
समय नियम के ही अनुरूप,
चंचल प्रकृति रूप बदल रही है.

परन्तु मन मेरा है जिद्दी,
दुष्यंत बिन कुछ दिखता नहीं,
दिमाग पर हो गया है हावी,
दुःख में ही उसे मिलती ख़ुशी.

छौने ज़रा राह दिखाओ,
जो माया से बाहर आऊँ,
पर वचन नहीं तुम्हे समझ सकूँ,
और मन के सत्य को छोड़ पाऊँ.

फूल दिखते फीके से,
पत्तियाँ सूखी-सूखी सी,
व्याकुल मन को यही भाते,
सत्य की यहाँ जगह नहीं.

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