(शिव यह कहानी अपनी प्रिया, यानी, पार्वती को सुना रहे हैं)
अशोक वाटिका का था नगर,
वट वृक्ष बना था उनका घर,
रह रहीं थी उसके नीचे सिया,
यही नाम था उनका, मेरी प्रिया,
सुनाता हूँ आज तुम्हें उनकी अद्भुत कहानी,
प्रेम, विश्वास, आत्म-सम्मान से भरी थी यह रानी,
उठा लाया था उन्हे एक राक्षस,
मोक्ष पाने का था उसे लालच,
बन्दी बना रखा उसने सिया को,
पर सम्मान दिया जैसे माता हो।
परन्तु बन्धन से बड़ा नहीं अपमान,
कैद में कब पनपा है कोई इंसान,
ऊपर से सिया तो थीं रानी,
नाज़ों से पली बढ़ी थीं दीवानी,
तीखे नक्श, सहज भाव, चतुर मन,
चंचलता और सौम्यता का था अद्भुत मिलन।
उठा लाया था रावण उनको वन-कुटि से,
मूर्छित हो गईं थीं सिया सदमे से,
आँख खुली थीं उनकी वट-वृक्ष के नीचे,
बैठीं रहीं थीं वह घंटों बिना कुछ बोले,
मस्तिष्क हो गया था सुन्न,
बिखरा था सब तरफ शून्य,
दिल में उठने लगा था गुब्बार,
नयन होने लगे गुस्से से लाल,
नियति का खेल जब नहीं आया समझ,
मन किया उजाड़ दूँ यह आनंद वन,
दुख से शरीर जब काला पड़ने लगा,
और पत्तियाँ सूख ज़मीन पर ढेर लगने लगा,
तब यह देख सिया ने अपने को संभाला,
और आँख बंद योग मुद्रा को गले लगाया,
चार दिन बैठीं रहीं बिना खाए पिए,
तब जा शान्त हुआ गुस्सा तन से,
आँख खुली तो रोने लगी सिया मन में,
अश्रु नहीं गिरने दिये एक भी धरती पे,
विश्वास था सिया को यह पूर्णत:,
राम आयेंगे लेने प्रिया को शीघ्रत:।
स्वयं को संभालने का भार जब आया खुद पर,
निभाया उसे सिया ने बहुत सुंदरता पूर्वक,
गुस्सा आता तो बैठ जातीं योग में,
अन्यथा बात करती फूलों और पेड़-पौंधों से,
अशोक वाटिका लगी और भी खिलने,
पक्षियों और भवरों की संख्या लगी बढ़ने,
शान्त मन जब बात करतीं अपने प्रिय से,
विचारों की दौड़ लगती पूर्ण भ्रमाण्ड में,
ऐसे में जब बाहर आने को अश्रु मचलते,
बेचारी सिया फिर जा बैठती योग में।
आसक्ति और विवशता को रख दूर,
अपने विश्वास को बनाए रखा अटूट,
विपरीतता में ना छोड़ा हिम्मत का साथ,
विश्व ने दी सिया के संयम की दाद,
यही कहानी है प्रिय इस अद्भुत रानी की,
प्रेम, विश्वास, आत्म-सम्मान से भरी एक नारी की।
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