Poem dedicated to “Nirbhaya”, Dec 2012
सड़क के किनारे,
राहगीरों के सामने,
गिरीं दो जिंदा लाश,
जिन पर कहर चुका था नाच।
अवस्था थी कुछ नग्न सी,
जान थी कुछ बाकी सी,
किसी ने था नोंचा खसोटा,
वहशी चूस गए थे बोटी-बोटी भी।
यह तो थीं जिंदा लाश,
पर राहगीर थे पूरे मुर्दा,
उन दोनों के तन ढकने,
कोई ना आया सामने।
मर गया है यह शहर,
लाशों का है यह शहर,
क्या नहीं हो तुम सुनते,
होतीं हैं रोज यह खबरें…
दस कुचले, पन्द्रह लुटे,
तीन का हुआ बलात्कार,
कुछ और सुनाओ यार,
यह तो रोज का है कारोबार।
आज हुआ हादसा,
दस दिन हुई व्याख्या,
ग्यारहवें दिन चल देतें हैं लड़के,
फिर अपने हक़ को मांगने..
सोचते हैं…सींटी बजाना है हमारा हक़,
ताकना है हमारा हक़,
गंदे शब्द बोलना है हमारा हक़,
लड़कियों को छूना है हमारा हक़।
क्या सिखा रहें हैं,
हमारे घरों में,
क्या हो रहा है यह,
हमारे समाज में?
स्त्री का सम्मान,
अब हो गया बेईमान,
शिशु से अधेड़ तक का,
यहाँ होता है बलात्कार।
नपुंसक हैं हम,
मुर्दा हैं हम,
चूहे हैं हम,
क्या ना-इलाज हैं हम?
दुनिया के विनाश की,
सब करते हैं बात,
तिल-तिल जल रहा है हमारा घर,
क्या यही नहीं है विनाश?
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