आसमान था भयभीत
परन्तु धरती थिरक रही थी,
चारों तरफ डमरू की
आवाज़ फैली हुई थी।
चन्द्र जटा से निकल
बादलों में छुप गया था,
गंगा भी सिमट कर
पत्थरों में दुबक गयीं थीं।
नीलकंठ की बिखरीं लटाएं
इधर-उधर उड़ रहीं थीं,
चेहरे पर गुस्से से
भ्रकुटी तनी हुई थीं।
घूमते नयनों में
सतरंग भाग रहे थे,
हृदय की धड़कनों से
मानो दौड़ लगा रहे थे।
पसीने कीं बूँदें
अधरों पर चमक रहीं थीं,
कंठ की कसी नसें भीं
धक-धक कर रहीं थीं।
गुस्से के अंगार पर
शरीर नाच रहा था,
फिर भी हाथों की मुद्राओं में
कमल खिला हुआ था।
थिरकते पैरों के नीचे
धरती नाच रही थी,
असमंजस में परन्तु
बेचारी पड़ी हुई थी।
नीलकंठ का यह रौद्र-रूप
अत्यंत मनमोहक लग रहा था,
परन्तु उमा से लड़ाई पर
शिव का दिल दुखी हुआ था।
दोनों को अगर मनायें
तो यह मोहक रूप देख न पायें,
परन्तु दुखी उमा-पति को
ऐसे छोड़ा भी तो ना जाये!
तब धरती गयीं गणेश के पास
बोलीं मनाओ माता-पिता को आज,
उनकी मधुर मुस्कान के पश्चात
सब मिल करेंगे भोजन साथ।
मोदक छोड़ बाल गणेश उठे
पिता समक्ष जा नाचने लगे,
यह देख नीलकंठ हँस पड़े
उमा के होंठ भी खिलने लगे।
चन्द्र और गंगा दौड़े आये,
शिव की लटाओं में फिर समाये,
उमा और शिव मंद-मंद मुस्कुराये,
धरती और गणेश खूब खिलखिलाए।
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